शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

खाली पन्नों पर लिखी प्रेम कहानी

जब मैं इसपर लिखकर तुम्हें एक लंबा सा ख़त भेजूँगा,
समझना दिल भेजा है।
थोड़ी देर उलटपुलट कर देखना
वहीं कहीं हम दोनों की तस्वीर भी धड़क रही होगी।

तुम हमेशा मेरे दिल में इसी तरह रही हो।
मैं भी वहीं अबोले तुम्हें ताकता रहा हूँ। इससे बेहतर तुम्हें पुकार नहीं सकता,
इसलिए सुन लेना मेरी आहिस्ता से ली हुई साँस।

समझ जाऊँगा, तुमने भी इसी तरह अपना ख़त भेजा है।

फ़िर एकबार हम अदला बदली कर एकदूसरे के पास जा पहुँचे हैं।
तुम मेरे पास हो, मैं तुम्हारे पास हूँ।

ऐसे हम दोनों एक दूसरे से अलहदा होने तक पास हैं।
हम ऐसे ही जब पास होते हैं, तब नहीं रहते इतने पास।
बस झाँकते रहते अंदर खिड़की के बाहर।

इस तरह हम किसी खाली पन्ने पर लिखी गयी प्रेमकहानी हैं।
पर नहीं चाहता हमारे बीत जाने से पहले कोई हमें पढ़ जाये।

इसलिए बाकी बातें चाँद पर
तुम्हारा, सिर्फ़ तुम्हारा!

25/02/2015 

गुरुवार, 14 अगस्त 2014

नाम की पहचान


उसने नहीं पूछा था तुमसे तुम्हारा नाम
तुमने ख़ुद ही बताया-
प्रतिमा गोखले !

फ़िर अपने से ही कहा
चित्तपावन ब्राह्मण,
महाराष्ट्रीयन,
हिन्दू,
भारतीय।

और यह भी कि इसमें छिपे हैं
इतिहास, भुगोल, समाज, भाषा, राष्ट्र

पता है तुम्हें, किससे बात कर रही थी?
एक राशन कार्ड की अर्ज़ी देने आए युवक से।
जिसका नाम सिर्फ़ नाम नहीं था,
बस उसमें से गायब थी ऊपर वाली सारी मदें।

गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

इस तरह उदासी..


जब तुम अपनी आवाज़ में अपनी उदासी छिपा रही होती हो
मैं बिलकुल वहीं उसी आवाज़ में कहीं बैठा उदास हो रहा होता हूँ।

इस तरह हम दोनों लगभग एक साथ उदास होने लगते हैं।

इस उदास होने को हम किसी काम की तरह करते
हम दोनों इसी की बात करते
कि उदास होने से पहले और उदास हो जाने के बाद हम क्या-क्या करेंगे।

बात उदासी से शुरू होकर उदासी तक जाती
कोई ऐसी बात नहीं थी जिसमे हम इसे ढूँढ नहीं लेते थे
एक दूसरे पर नाराज़ भी होते कि इस उदासी के मिलने की बात पहले नहीं बताई
कई झगड़े इसी उदासी पर होते और हम एक बार फ़िर उदास हो जाते।

जब कई दिन बीते उदास नहीं हो पाते इसे कहीं से भी ले आते
और फ़िर उदास हो आते। 

उदासी हम दोनों का स्थायी भाव होती गयी
हम दोनों स्थायी उदास होते गए
इस अदला-बदली के बावजूद हम दोनों उदास थे।

जैसे अभी उदास हैं
के उदासी के अलावा कोई और शब्द नहीं मिला जिस पर उदास हो सकें।

बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

दिल्ली का आख़िरी कऊआ


'अब उड़ने में मज़ा नहीं आ रहा..!!'
आहिस्ते से कान में बोल कऊआ दूर गर्दन झुका बैठ गया
थोड़ा सुस्त लग रहा था
बीमार नहीं था पर सुस्त था

पहले कभी उसे ऐसे नहीं देखा था  आज देख रहा था

फ़िर बोला 'क्या करूँ दोस्त सब ख़त्म हो रहा है
मैं तो बस कुछ दिन और रहूँगा फ़िर चला जाऊंगा
कभी वापस आने का मन भी नहीं करता
न शहर छोड़ने पर रोने का..'

उसकी आँख गीली थी या नहीं नहीं देख पाया
बस एकटक घूरता रहा उसकी आवाज़ को
भर्राये गले सा वह चुप रह जाता 
कुछ कहता नहीं  बस देखता रहता

उसने बहुत सी बातें मुझ से की
जितनी याद रहीं उनमे से एक यह थी के 
उसके शरीर में यहाँ की हवा ने जंग लगा दी है
किसी कंपनी का पेंट किसी कंपनी का सीमेंट उन्हे बचा नहीं पाया
जबकि अपने सुबह के नाश्ते में बे-नागा वह इन्हे लेता रहा था

सबसे जादा दुख उसे अपने पंखों का था
जिससे थोड़ा ऊँचा उड़ने में ही वह थक जाता है
रीवाइटल की गोली भी कुछ काम करती नहीं लग रही

कहता था
सलमान की उस होर्डिंग पर जाकर हग देगा जो ओबेरॉय होटल के पास लगी हुई है
और भी कई जगह जाकर ऐसा करने की उसकी योजना थी
जिन-जिन में उसे कऊ आ नहीं रहने दिया था
शर्तिया उसने गालिब को चाँदनी चौक में पढ़ लिया होगा
वरना कऊए का कऊआ न रहना कोई बड़ी बात नहीं मानी जाती
न कोई उसकी बिरादरी में ऐसा सोचता होगा
हम कभी-कभी ख़ुद इतना नहीं सोच पाते वह तो कऊ आ है 

बीच में सोचने लगा अगर कोई इंसान भी ऐसा करने की ठान ले तो उसे लोग पागल कहेंगे
क्या काऊओं को कोई पागल कह सकता है

ख़ैर,
वह बिलकुल जल्दी में था, अरबरा गया था, उसे जाना था अभी
इसलिए जो-जो वह तेज़ी से कहता गया वह मुझ तक उसकी कांय-कांय बनकर पहुँचा

और न उस दिन के बाद से किसी कऊए को मैंने देखा
बस उसकी थकान के लिए जो टैब्लेट खरीदी थीं उनका क्या करूँ यही सोचता रहा
पता नहीं वह उड़ भी पाया होगा के नहीं
बस खटके की तरह रात अचानक उठ जाता हूँ
और दिख जाती है उस शाम सड़क पार करते काऊए की लाश।

सच उसके पंखों में जंग लगा हुआ था और पेट से अंतड़ियाँ नहीं गोलियाँ निकल रही थीं।

मंगलवार, 1 अक्तूबर 2013

खाली प्लेटफ़ॉर्म की ऊब


किसी खाली सुनसान स्टेशन के ‘प्लेटफ़ॉर्म’ की तरह
उस अकेलेपन में इंतज़ार कर देखना चाहता हूँ
कैसा हो जाता होगा वह जब कोई नहीं होता होगा

कोई एक आवाज़ भी नहीं
कहीं कोई दिख नहीं पड़ता होगा
बस होती होगी अंदर तक उतरती खामोशी

दूर तक घुप्प अँधेरे सा इंतज़ार करता ऊँघता ऊबता
कि इस अँधेरे में सरसराती मालगाड़ी जब कानपुर सेंट्रल से चल पड़ेगी
तब कहीं उसके बयालीस घंटे बाद यहाँ पहली हलचल होगी
हफ़्ते में आने वाली एक ही गाड़ी। पहली और आखिरी।

वरना उस सोते स्टेशन मास्टर के पास इतना वक़्त कहाँ था
कि उन खाली पड़े मालगोदामों में किराये पर रखे पौने सात लोगों पर रखी एक स्त्री के साथ संभोग करता
और उसके होने वाले बच्चे से इस अकेलेपन को कम करने की सोचता

ऐसा करने से पहले पहली बार जब यह विचार उसके मन में आया
तब चुपके से उसने प्लेटफ़ॉर्म से पूछा था
वह भी मान गया था उसने भी हाँ भर दी थी।
वह भी अकेला रहते-रहते थक गया था।

अब नहीं सही जाती थी
गार्ड के खंखारते गले से निकलते बलगम की जमीन पर धप्प से गिरने की आवाज़
नहीं सुनना चाहता था उस लोकोमोटिव ड्राइवर की गलियाँ
उन जबर्दस्ती उठा लायी गयी लड़कियों की चीख़
उन्हे कराहते हुए छोड़ भाग जाते लड़कों के कदमों की आवाज़

उन्होने कभी ख़ून को वहाँ से निकलते नहीं देखा
वह डर जाते हैं वह भाग जाते हैं
पर वह नहीं डरेगा वह नहीं भागेगा
वह बस उस नए जन्मे बच्चे के साथ खेलेगा।